Friday 11 November 2011

डॉ.खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

विगत ९ नवम्बर(२०११)  को भारतीय मूल के वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोबिन्द खुराना की मृत्यु हो गयी ..उन्हें १९६८ में नाभकीय अम्लों के  प्रोटीन संश्लेषण की प्रक्रिया के रह्स्यावरण पर नोबेल से सम्मानित किया गया था ....वे भारत से एक फेलोशिप पर इंग्लैण्ड के लीवरपूल विश्वविद्यालय १९४५ में गए और वहां से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की और भारत लौट आये ..यहाँ उन्हें उपेक्षा ही उपेक्षा मिली ...हताश और बेरोजगार वे वापस इंग्लैण्ड फिर कनाडा और अततः अमेरिका में विस्कांसिन विश्वविद्यालय में एन्जायिम पर शोध रत हुए ...डॉ. खोराना अविभाजित भारत के मुल्तान के रायपुर(पंजाब) कस्बे में 9 जनवरी 1922 को जन्मे थे ...पिता पटवारी थे जिन्होंने बच्चों को शिक्षा देने को अपने जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता मानी थी .....१९७६ में खोराना एक बार तब फिर सुर्ख़ियों  में आये जब  'मनुष्य द्वारा निर्मित/संश्लेषित  पहले जीन' का श्रेय उन्हें मिला ....आज की जैव प्रौद्योगिकी डॉ. खुराना के शोध की बहुत ऋणी है और क्रेग वेंटर द्वारा  प्रयोगशाला में जीवन के निर्माण की तो एक तरह से बुनियाद डॉ .खोराना ने ही रख दी थी ......
डॉ हरगोबिन्द खोराना(९ जनवरी १९२२-९ नवम्बर २०११)  

आज क्षोभ इस बात का है कि डॉ खोराना को अपने देश में जिस तरह का सम्मान और तवज्जो मिलना चाहिए था वह उन्हें नहीं मिला और आज उनके दिवंगत होने से वे सारे सवाल जिनके कारण आज भी वैज्ञानिक शोधों में भारत की हालत दयनीय बनी हुयी है प्रासंगिक हो उठते हैं ...डॉ .खोराना को जब नोबेल मिलने की घोषणा हुयी थी तब एकबारगी ब्रेन ड्रेन-प्रतिभा पलायन का मुद्दा जोर शोर से उठा था ....मगर ऐसी ही प्रतिभाएं अपने देश में  उपेक्षा का दंश सहती रहती हैं, उनकी कुशाग्रता में जंग लगती जाती है -ब्रेन रस्टिंग से तो फिर भी ब्रेन ड्रेन ही अच्छा है जिससे दूसरे देश में ही सही मगर वहां सफलीभूत हुए शोध का फायदा पूरी मानवता को तो मिल जाता है ....


आज भी भारतीय परिदृश्य में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है ..प्रतिभाओं की घोर उपेक्षा आज भी है ..मौलिक सोच और कल्पनाशीलता को पूछने वाला कोई नहीं है ....शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों के मुखिया नए शोध छात्रों की खुद की  मौलिक प्रतिभा को बढ़ने देने के अवसर के बजाय अपने सोच और कार्यों को उनपर लादते जाते हैं..फंडिंग संस्थाएं बस घिसी पिटे और/ या तो  पश्चिम के अन्धानुकरण से उपजे विषयों पर ही शोध कराने की सहमति और बजट देती हैं ..वहां भी यही वातावरण रहता है कि आखिर रिस्क कौन ले ..देश की ब्यूरोक्रेसी खुद अपनी  ही सर्वज्ञता पर मुग्ध रहती है और वैज्ञानिकों को दोयम या तीयम  दर्जे का नागरिक मानती है ..उनकी आत्ममुग्धता का आलम यहाँ तक जा पहुँचता है कि सम्बन्धित विषयों में खुद की अल्पज्ञता के बावजूद भी वे वैज्ञानिकों के शोध प्रकल्पों और तकनीकों तक की प्रक्रिया और औचित्य पर सवाल उठाने लग जाते हैं ......फलस्वरूप वैज्ञानिकों का हतोत्साहन ही नहीं उन्हें अपमान का घूँट भी पीना पड़ता है ..कमोबेस यही हालात भारत में वैज्ञानिकों के साथ हर जगहं  है और दमघोटूं माहौल में कुछ अति महत्वाकांक्षा के शिकार अयोग्य वैज्ञानिक जब राजनेताओं की चाकरी /चारण कर महत्वपूर्ण पदों को हथिया लेते हैं तो कोढ़ में खाज बन  जाते हैं ...वे उनकी छत्र छाया इसलिए भी पाना चाहते हैं ताकि ब्यूरोकरैट के कोप से बचे रहें ....यह एक ऐसा दुश्चक्र बना हुआ है जिसने भारत से 'नोबेल -कार्यों', का पत्ता साफ़ कर रखा है ....यह स्थिति कैसे दूर होगी यह विचारणीय है ...

डॉ खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....