Tuesday 3 June 2008

ये कैसी माँ है कोयल भी !

कक्कू परिवार का भोंदू ऑर उसकी
देखभाल में अपना वजन घटाती एक
बेचारी वार्ब्लेर
आज भी प्रकृति प्रेमी कुछ कम नहीं हैं .इम्प्रिन्टिंग वाली अपनी पोस्ट के अंत में मैंने एक सवाल उठाया था कि कौन सा ऐसा पक्षी है जो इम्प्रिन्टिंग का अपवाद है .तुरत उत्तर आया कोयल .बिटिया ने सुबह ही यह बाजी जीत कर ईनाम के १०० रूपये झटक लिए थे .बालकिशन जी ने ऑर रजनीश जी ने भी अपने प्रकृति ज्ञान की बानगी दे दी .जी हाँ ,कोयल अपना अंडा कौए के घोसले में दे आती है ,उसमे अपने बच्चों के लालन पालन की प्रवृत्ति का लोप है .अब कोयल के बच्चे पलते तो हैं कौए के घोसले में पर काक दम्पत्ति से इम्प्रिंट नही होते .यह एक बड़ा अद्भुत व्यवहार है .इस विचित्र व्यवहार पर आज भी वैज्ञानिकों -पक्षी विदों में माथा पच्ची चल रही है .कैसी माँ है यह कोयल भी ...शेम शेम ...पर वह बेचारी करे भी क्या ,ऐसा वह जान बूझ कर तो करती नहीं ,दरअसल उसमे वात्सल्य के जीनों का अभाव है .ऑर पक्षी जगत में वह अकेली प्रजाति नही अनेक ऐसे पक्षी हैं -काला सिर बत्तखें ,हनी गायिड्स ,काऊ बर्ड्स ,वीवर बर्ड्स ,वीदूएँ वीवर्स ऑर ४७ प्रजाति की कक्कू प्रजातियां जिनमें हमारी कोयल भी शामिल है.कोयल ही नही हमारा चिर परिचित काव्य विश्रुत पपीहा ऑर चातक भी नीड़ परजीवी पक्षी हैं .पपीहा तो बेचारी भोली भाली सतबहनी चिडियों के घोसलों में अपना अंडा देती है -वे प्राण पन से उस परभ्रित बेडौल पपीहा शिशु को पालती हैं -मगर जैसे ही वह उड़ने के काबिल होता है ,भाग चलता है अपने माँ बाप के पास .वे ठगी सी रह जाती हैं ?
कौए
जैसे चालाक पक्षी को भी कोयल बेवकूफ बना अपना शिशु पलवा लेती हैं ।
करीब एक दशक पहले मैंने 'जनसत्ता' में इसी अद्भुत व्यवहार को लेकर एक विज्ञान कथा लिखी थी -अन्तरिक्ष कोकिला '- ऐसा न हो कभी मानव माताएं /मादाएं भी ऐसा ही न करने लगें .कहानी में एक ऐसी ही येलीएन सभ्यता की कहानी हैं जिनमें वात्स्य्ल्य के जीनों का लोप हो गया है ऑर वे भारत के गावों मे चोरी छिपे आकर भोली भाली गवईं औरतों से अपने शिशुओं का लालन पालन करा कर उन्हें अपने साथ वापस ले जाती हैं .कहानी एक ऐसे ही ट्रेंड का इशारा मानव माओं में शिशुओं की देखरेख के प्रति बढ़ती बेरुखी की संभावनाओं का जिक्र कर सामाप्त होती है -और समाप्त होती है आज की यह पोस्ट भी !