Saturday 31 May 2008

इथोलोजी बेसिक्स !

मेरे ब्लॉगर सुधी मित्रों ने आग्रह किया है कि मैं इथोलोजी बेसिक्स की कुछ चर्चा करूं -यह विश्वविद्यालय-अध्ययन काल से ही मेरा प्रिय विषय रहा है .अब तो 'राज काज नाना जंजाला ' के चलते कुछ भी मन माफिक नही हो पा रहा .मगर इस विषय से लोगों को परिचित कराने की मेरी अदम्य लालसा रहती है -मैं हमेशा इस विषय के अपने अल्प ज्ञान को बाटने को तत्पर रहता हूँ ।
अपने पिछले पोस्ट में मैंने यह चर्चा की थी कि इस विषय पर जब १९७३ में कोनरेड लोरेंज़ ,निको टीन्बेर्जेन ऑर कार्ल वन फ्रिश ने नोबेल हासिल किया तभी से पूरी दुनिया ज्ञान के इस नए पहलू को लेकर सीरियस हुयी -ऑर अब तो यह एक भरा पूरा विषय है जिस पर हजारों शोध डिग्रियाँ बंट चुकी हैं .हमें उन शोध डिग्रियों से क्या लेना देना , चलिए शुरू करें इथोलोजी का ककहरा ...
इथोलोजी बोले तो -पशु पक्षियों ,जीव जंतुओं का उनके नैसर्गिक परिवेश में अध्ययन .कुछ ऐसे कि जिन जीव जंतुओं को वाच किया जा रहा हो उन्हें इसका भान न हो कि उन्हें देखा जा रहा है .वैसे प्राणियों को बिना डिस्टर्ब किए उनके अध्ययन की यह सूझ मूलतः ब्रितानी खेमे की है ,अमरीका में बिना उपकरणों के तामझाम ,लाल नीली पीली बत्तियों की जल बुझ के प्राणियों का व्यवहार अध्ययन मानो पूरा ही नही होता -इसलिए इन अलग अलग अप्रोचों के चलते इथोलोजी के दो प्रमुख खेमे हैं -दो अलग स्कूल ।
कोई जानवर जैसा व्यवहार प्रदर्शित कर रहा है वैसा वह क्यों कर रहा है -इथोलोजी अध्ययनों का पहला सवाल है -
किसी कुत्ते को देखिये -गली कूंचे के कुत्ते को !अभी वह सो रहा है -इंतज़ार कीजिये ....अब वह उठ बैठा है ...अरे यह इसने कैसी मुद्रा बना ली ?यह अपने एक पिछले पैर से अपनी गर्दन खुजा रहा है -केवल तीन पैरों पर खडा है -tripod जैसा .इसे भूख लगी है [निष्कर्ष ]..ऑर अब यह खाने की तलाश में चल पडेगा ...ऑर लीजिये वह खाने की तलाश में चल भी पड़ा ....हो गया एक इथोलोजी अध्ययन पूरा -यह तो एक छोटी सी बानगी रही ,विषय को समझाने के लिए .आम पब्लिक के लिए इस विषय पर मैं डेसमंड मोरिस की मशहूर किताब ,'एनीमल वाचिंग 'की हमेशा सिफारिश करता हूँ .कुछ वहाँ से तो कुछ अपना मौलिक प्रेक्षण यहाँ आपके लिए पेश करना मेरा सौभाग्य होगा .बस नज़रें ईनायत बनाएं रखें ....

Thursday 29 May 2008

क्योंकर स्वदेशी हुआ चंद्रयान अभियान ?

चित्रकार की नज़र में चंद्रयान -सौजन्य इसरो
चंद्रयान अभियान की सुधि है आपको ?इसे तो अभी तक चन्द्रमा की ऑर उड़ चलना था .जी हाँ ,अब जाकर तैयारियां जोर पकड़ रही हैं और अनुमान है कि सितम्बर के आस पास यह अभियान काफी धूम धडाके से अपनी राह पकड़ लेगा -मगर इतना विलम्ब क्यों ?
अरे भाई चुनाव करीब है और उसके जितना ही करीब यह शोबाजी होगी उतना ही वोटरों को रिझाने का मौका मिलेगा न !बहरहाल मैंने यह पोस्ट इस खातिर नियोजित की है कि आप भी ज़रा यह जायजा लें कि क्या यह विशुद्ध रुप से एक देशज अभियान ही है -आप निर्णय ख़ुद लें -
इस चंद्रयान -१,ल्युनर आर्बिटर की मशीनरी में आधे दर्जन से ज्यादा देश भागीदारी कर रहे हैं -इसमे एक तो C1xs है जिसे यूरोपियेन स्पेस एजेंसी ने प्रायोजित किया है और यह हेल्स्नकी युनिवेर्सिटी के सहयोग से तैयार किया गया है .अभी भी इसके एक्स रे सोलर मानीटर का इंतज़ार हो रहा है .यह चन्द्र सतह की रासायनिक जांचों मे मदद करेगा .इसी तरह एक औजार नासा का मून मिनेरोलोजी मैपर एम् ३ है जो एक १५ पौंड का स्पेक्ट्रोमीटर है जो चाँद के खनिज खादानों पर निगाह जमाएगा .यह एक खादान नक्शा भी तैयार कराने मे मददगार होगा .यह चाँद के गुफा गह्वरों में बर्फानी जल स्रोतों की भी खोज बीन करेगा .एक नन्हा सा बुल्गारियाई विकिरण मापी -राडोम भी इस अभियान का हिस्सा है जो वहाँ के वातावरण [?}में रेडियो धर्मिता की छान बीन करेगा .
यही नही जर्मनी के मैक्स प्लांक संस्थान द्वारा एक और खनिज खोजी -SIR 2, भी यान पर आरूढ़ हो चुका है जो खनिज भंडारों की बारीक पड़ताल करेगा .
जांस हापकिंस युनिवेर्सिटी के अप्लायिद भौतिकी के वैज्ञानिकों ने एक राडार मैपिंग इकाई भी भेजी है जो यान मे फिट हो चुकी है .यूरोपियेन स्पेस एजेंसी ने स्वीडेन ,जापान ,स्विट्जरलैंड के सहयोग से SARA नामक एक प्रोब भी भेजा है जो यान में जगह पाएगा और सौर हवाओं का ताप सहेगा .
और कई भारतीय उपकरण तो खैर है हीं .
इस तरह यह अभियान एकदम से स्वदेशी कैसे कहा जाय ?कुछ लोग कहेंगे कि यह वैश्विक स्पेस बिरादरी का सुंदर मेल है .या फिर सभी भारत के कंधे पर बंदूक लाद अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं .


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Wednesday 28 May 2008

सुखी एक बन्दर परिवार ,दुखिया सब संसार !


जीव जंतुओं के व्यवहार -अध्ययन को 'ईथोलोजी' कहते हैं -पहले ज्ञान की इस विधा को विज्ञानी गंभीरता से नही लेते थे .मगर जब १९७३ में इस विधा पर कोनरेड लोरेंज़ ,निको टीनबर्जेन ऑर कार्ल वोन फ्रिश की तिगड़ी को नोबेल मिल गया तो लोगों की आँखे खुली .तब से तो ज्ञान विज्ञान के इस अनुशाससन ने उपलब्धियों की कई मंजिलें हासिलकी हैं ।
ईथोलोजी का अध्ययन कितना रोचक है आईये बंदरों की ऊपर की तस्वीर से थोडा समझें -
आराम फरमा रहे इस बन्दर परिवार मे क्या ख़ास बात नोटिस की आपने ?एक बन्दर दूसरे के जुयें खोज रहा है .यही न ?नहीं, एक व्यवहार विद की नज़र में यह माजरा इतना ही नही है -उसके शब्दों में यह दृश्य 'अपीज्मेंट बिहैविअर 'प्रदर्शित कर रहे नर बन्दर का है .बन्दर समुदायों में परिवार में दबंगता का बड़ा खौफ रहता है .परिवार का मुखिया प्रायः बहुत ही आक्रामक ऑर दबंग होता है .अपनी इस दबंगता की स्थिति को बनाए रखने के लिए वह अनायास ही बात बात पर गुस्सा करता रहता है .उसके इसी गुस्से को शांत करने की ही एक जुगत है यह अपीज्मेंट व्यवहार -प्रशान्तिदायक व्यवहार जो यहाँ अपवाद के तौर पर नर प्रदर्शित कर रहा है .जबकि ऐसा व्यवहार अमूमन मादा नर के लिए या दब्बू सदस्य दबंग के लिए करता है , ताकि परिवार का सुख चैन बना रहे ।वह एक इकाई के रूप मे बना रहे -बिखरे नही .लगता है इस परिवार में मादा दबंग है .उसका सदयजात बच्चा भी साथ है ,अतः उसका इस समय आक्रामक होना सहज ही है .जुयें खोजना तो महज एक बहाना है ,यहाँ उससे भी बड़ा काम संपादित हो रहा है .
हम ऑर आप भी विकास के एक दौर में इन्ही बंदरों से होकर आए हैं -ऐसे व्यवहार हमारी जीनों मे भी होना सहज है .अब जरा गौर फरमाएं हम अपने परिवार के मुखियाके प्रति कौन कौन से अप्पीजमेंट व्यवहार अपनाते हैं ?
यही आज की इस पोस्ट की छोटी सी इक्सेर्साईज है -ऑर इथोलोजी का आपका पहला पाठ भी .यदि आप ने रूचि दिखाई तो इथोलोजी बेसिक्स पर मैं कुछ ऑर पोस्ट कर सकूंगा.

Tuesday 27 May 2008

मंगल पर उतर गया है 'अमर पक्षी '!




अरब ऑर यूनानी मूल की एक दंतकथा के मुताबिक वहाँ के रेगिस्तानी भागों मे एक पक्षी हुआ करता है -PHOENIX-अग्नि पक्षी ,जिसके बारे में दंत कथा है कि वह सैकड़ों साल जिंदा रहता है ख़ुद बी ख़ुद अपने को भस्मीभूत कर लेता है ऑर इच्छा मुताबिक फिर अपनी राख से ही उत्पन्न हो उठता है -समूहे चार्वाक दर्शन को इस तरह चुनौती देते इस 'अमर पक्षी 'ने अब एक नया कारनामा कर दिखाया है .धरती के दिक्काल से परे जाकर अब यह मंगल की धरती पर यह सकुशल उतर गया है .जी हाँ ,यह चर्चा है नासा द्वारा मंगल की धरती पर उतारे गए जल[ऑर जीवन ]खोजी यान की जो कल से ही अन्तरिक्ष मे जीवन खोजी वैज्ञानिकों ऑर स्पेस तक्नीसियनों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है ।
फीनिक्स का मुख्य काम मंगल की धरती के आर्कटिक क्षेत्र में पिछले एक लाख वर्षों के बीच जमा पानी [यदि वह सचमुच मौजूद रहा है तो ......]को खोज निकालना है .इसके जिम्में दूसरी प्राथमिकता का काम होगा वहाँ मिटटी का रासायनिक विश्लेषण ताकि यह जाना जा सके कि जीवन दाई तत्वों -कार्बन ,नायीत्रोजन ,फास्फोरस आदि की वहाँ क्या मौजूदा स्थिति है .वह यह भी देखेगा कि कोई ऐसा कम्पाउंड तो वहाँ नही है जो जैवीय विकास के लिए विषम स्तिती पैदा करदे ।
कई वैज्ञानिक ऐसा सोचते हैं कि वहाँ जरूर कोई ऐसा जीवन -जीवाणु मिल जायेगा जो बर्फानी चट्टानों मे जमा-दबा होगा ऑर सुरक्षित होगा ,ठीक वैसे ही जैसे कि अभी कुछ वर्षों पहले धरती के ही आर्कटिक क्षेत्र में एक जीवाणु -Carnobacterium pleistocenium पाया गया जिसके बारे में एक एक्जोबायालोजिस्ट [जो धरती से बाहर जीवन की खोज मे जुटा हो वह वैज्ञानिक ] रिचर्ड हूवर ने कहा कि वह ३२ हजार वर्ष पुराना है मगर तरोताजा है .ऐसे ही बहुत सम्भव है कि मंगल की बर्फीली धरती भी ऐसे जीवाणुओं को अपने गर्भ मे छिपाए हो ऑर माकूल माहौल में वे पनप उठें ।
जो भी हो अमर पक्षी की नामराशी वाले नासा के यान ने एक करिश्मा तो कर ही दिखाया है अब हमे उत्सुकता से यह इंतज़ार है कि इस पक्षी की चोंच में आने वाले मंगल की मिटटी से हमें इस लल्छौहं ग्रह के बारे मे ऑर नया क्या पता लगता है .मंगल की ओर कूँच करने की रणभेरी बज चुकी है ---चलिए हम भी कोरस मे शामिल हों-मंगल भवन अमंगल हारी ....[बायाँ चित्र अमर पक्षी -स्रोत सौजन्य -विकिपीडिया ;दायाँचित्र -मंगल पर जा उतरा है फीनिक्स -नासा के वेब साईट से साभार .]

Thursday 22 May 2008

यह है महाझींगा-जैंट फ्रेश वाटर प्रान !


यह है महाझींगा-जैंट फ्रेश वाटर प्रान , जो कभी गंगा और सहायक नदियों मे इफरात मिलता था .यह समुद्राभिमुखी प्रवासी प्राणी है जिसका मतलब यह कि यह नदियों से समुद्र की ओर प्रजनन के लिए कूँच करता था .इसलिए कि इसके विकास की प्रक्रिया में लार्वा स्तर पर समुद्री पानी की उपस्थिति बेहद जरूरी है .जब से हुगली नदी पर फरक्का बाँध बना इनका प्रवास प्रजनन बाधित हो गया .लिहाजा आज हालत यह है कि पूरी कि पूरी महाझींगा मात्स्यिकी गंगा ऑर सहायक नदियों से विलुप्त हो चुकी है ।

मगर अब इस महत्वपूर्ण मात्स्यिकी सम्पदा को तालाबों मे पुनर्वासित कराने के प्रयास हो रहे हैं ,जिसमे वाराणसी ,उत्तर प्रदेश में सफलता मिल गयी है .महाझींगा को स्कैम्पी के व्यापारिक नाम से सारी दुनिया में जाना जाता है -जो एक अंतर्द्वीपीय व्यंजन है ऑर काफी महंगा है .इसका आज का रेट ६८० रूपये प्रति किलो है। जाहिर है इसके बाहरी निर्यात से भारी विदेशी मुद्रा कमाने के द्वार खुल रहे हैं -मुझे संतोष है कि बनारस के मत्स्य पालकों ने इसमे लीड ले लिया है .आज यहाँ के काशी विद्यापीठ तालाब ब्लाक में कंदवा गाव के एक साधारण से मछली व्यवसायी

श्री राजेन्द्र के तालाब पर मैं गया तो वहाँ से निकले झींगो के आकार प्रकार से खुश हो गया .ग्रीस्मावकाश मना रही बेटी प्रियेषा भी साथ थी जो विस्मय से झींगों का फोटो ले रही थी .इस एक चित्र में एक नर झींगे की गहरी ब्लू टांगें प्रमुखता से दिख रही हैं .मैं भी हूँ चित्र में .......आप मुझमें ऑर झींगे मे फ़र्क तो कर ही लेंगे ,यदि पहले कभी झींगा न भी देखा तो भी .........



Tuesday 13 May 2008

चूजे की यह राम कहानी !


ये बिचारे शकर खोरा नाम की चिडिया के चूजे हैं -अभी ठीक ठीक उड़ना नही आया है .घोसले से बार बार गिर पड़ते हैं ।अब बिचारी माँ कहाँ तक झेले ,तब भी प्राण प्रण से इनकी जीवन रक्षा मे जुटी है बेचारी ...मगर घोसले मे तो डाल नही सकती ,यह काम खेल कूद मे मगन हमारे ग्रामीण बच्चों के जिम्मे है .अभी बिटिया गावं गयी थी तो उसे चूजे की यह राम कहानी देखने को मिली ..उसने पहले तो चूजे महराज की फोटो मोबाईल से उतारी ऑर आगे की जानकारी के लिए मामला मुझे सौंप दिया ।
यह पर्पिल सनबर्ड का नवजात है .यह बहुत छोटी चिडिया है -बस अंगूठे के बराबर -नर प्रणय काल में बैंगनी -नीलापन लिए रहता है ,मादा का उपरी भाग भूरा तथा नीचे का पीलापन लिए होता है . प्रणय काल के अलावा दोनों एक जैसे ही लगते हैं -हाँ नर के गले से एक गहरी काली पट्टी पेट तक जाती है . हिन्दी मे इसे शकर खोरा ऑर गाँव देश मे फुल्चुसकी भी कहते हैं .हमारे यहाँ अब चिडियों मेआम लोगों की रूचि न के बराबर रह गयी है .यह चिंता की बात है ।
छायांकन :प्रियषा मिश्रा

Thursday 8 May 2008

Tributes to Albert Hofmann [January 11, 1906 – April 29, 2008]!


Chemist Albert Hofmann has died at the age of 102 on April 30, 2008.He is credited inter ailia for the isolation of lysergic acid diethylamide, or LSD in 1938 while working in Sandoz chemical company. The new substance, however, aroused no special interest in our pharmacologists and physicians; testing it further was therefore discontinued.

Five years later however he found himself in a dreamlike state and he finally confirmed that the substance was related to the lysergic acid -diethylamide tartrate he had just started working with and his dream like state might have been due to accidental absorption through his fingernails, he recorded.

He narrated the story in following way,’There seemed to be only one way of getting to the bottom of this. I decided on a self-experiment.” He took LSD hundreds of times, but regarded it as a powerful and potentially dangerous psychotropic drug that demanded respect. More important to him than the pleasures of the psychedelic experience was the drug’s value as a revelatory aid for contemplating and understanding what he saw as humanity’s oneness with nature.

A ‘Minor’ Planet Named After a Kerala Zoology Professor!


We are used up seeing Indian streets and buildings named after politicians but now a rare honour has been bestowed upon a Keralite environmentalist, Dr. Sainudeen Pattazhy by naming a minor planet of the solar system after him which shall be now called "5718 Pattazhy".

Dr. Sainudeen Pattazhy is professor of zoology at the S.N. College in Kollam, Kerala. NASA has announced recently that it will name the minor planet in recognition to his pioneering work he has done in the field of environmental research. There are around 400,000 ‘minor planets’ or asteroids in the solar system, of which 185,685 have well defined orbits and have been allotted numbers by the International Astronomical Union (IAU). Around 14,000 of them have been given names mainly after their discoverer astronomers.

“I was so happy when NASA informed me that my name has been selected for naming a minor planet. It’s known as 5178 Pattazhy. Actually, a US-based scientist of Indian origin Mr. Rajamohan had discovered it in 1989. He proposed my name and NASA accepted it,” Pattazhy said.

Pattazhy came into prominence for his study on the red rain phenomenon of Kerala which occurred in 2001. His research proved that the red colour of the rains was due to a geological process and had nothing to do with alien life. Before his work there was an argument that it had some alien connections .He showed that the queer phenomenon was due to certain peculiar environment prevailing in Kerala during the period in question. Pattazhy’s suggestions on the health hazards posed by mobile towers are still pending with the Union Ministry of Environment. According to him, the radiation would affect people residing within 300 meters of the towers.

Sainudeen said that he felt elated that his non- descript village Pattazhy in Kollam district of Kerala was now in prominence and found a 'celestial niche' of its own.

Saturday 3 May 2008

फिर से जम गयी कटी हुयी उंगली !


जी हाँ ,फिर से जम गयी कटी हुयी उंगली !आप पूरा वीडियो यहाँ देख सकते हैं .यह समाचार बीबीसी हिन्दी पर भी देखा जा सकता है .एक दुर्घटना में उंगली कट जाने के बाद 'चमत्कारी पाउडर-पिक्सी पाउडर ' से इसे ठीक करने में अमरीका के एक शख्स को कामयाबी मिल गयी है।
इस समाचार को पढ़कर सहसा ही राक्षस राज रावण की याद हो आयी .उसके मिथकीय चरित्र मे यह ख़ास बात थी की उसका सिर कटाने के बाद फिर फिर उग आता था .यह शिव के कथित वरदान का फल था .यह सचमुच कितना रोचक है कि अब विज्ञान ऑर टेक्नोलॉजी ने अतीत के तंत्र मन्त्र ,शाप वरदान का जिम्मा अब अपने ऊपर ले लिया है .अब जैसा कि यही समाचार है बिना किसी दैवीय वरदान के यह चमत्कार हो गया है .

वैसे कुछ वैज्ञानिकों ने 'चमत्कारी पाउडर' के दावों को झुठलाते हुए कहा है कि 'उंगली उगने' की यह प्रक्रिया 'स्वाभाविक' या 'प्राकृतिक' चमत्कार हो सकती है.
दरअसल, वर्ष 2005 में एक दुर्घटना में अहियो प्रांत में सिनसिनाटी शहर के निवासी 69 वर्षीय ली स्पिवॉक की उंगली का एक हिस्सा कट गया था.बताया गया है कि उंगली के पहले मोड़ से ऊपर का हिस्सा कट गया था.एक मॉडल विमान के पंखों की चपेट में उनकी उंगली आ गई थी और उंगली का कटा हुआ हिस्सा भी नहीं मिल सका था.

स्पिवाक के भाई पीट्सबर्ग यूनीवर्सिटी में डॉ स्टीफ़न बेडीलेक के साथ दवा विभाग में काम करते थे. उन्होंने स्पिवाक को ये चमत्कारी पाउडर यानी एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स दिया. जिसे स्पिवाक ने अपनी कटी उंगली पर छिड़का.इस पाउडर को सामान्य रुप से 'पिक्सी डस्ट' के नाम से जाना जाता है.यह सूअरों के एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स कोशिकाओं से तैयार हुआ है.

स्पिवाक का कहना है कि कुछ ही हफ्तों में हड्डी, ऊतक, त्वचा और नाखून के साथ उंगली फिर से उग गई.

डॉ बेडीलेक की टीम पहले से ही एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स की मदद से बहुत सरल जैविक संरचना तैयार करने पर काम कर रही थी.वैसे कुछ वैज्ञानिक अभी इस दावे को संदेह की निगाह से देख रहे हैं .
किंग्स कॉलेज लंदन में कोशिका अध्ययन विभाग में कार्यरत प्रोफ़ेसर स्टीफन मिंगर कहते हैं
, "मुझे नहीं पता कि वे एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स को छिड़ककर उंगली कैसे उगा सकते हैं."

प्रो मिंगर कहते हैं, "अगर उंगली का कटा हिस्सा फिर से जोड़ भी दिया जाए तो तंत्रिका कोशिकाएँ फिर नहीं बन पातीं और व्यक्ति को उंगली के इस हिस्से पर दर्द या दबाव का अहसास नहीं होता."

वैज्ञानिकों को कहना है कि वे डॉ बेडीलेक की इस शोध रिपोर्ट का अध्ययन करना चाहेंगे.

मतलब साफ़ है कि भले ही वैज्ञानिक उंगली उगने की इस घटना को चमत्कार नहीं मान रहे हों, लेकिन इससे उन्हें शोध की दिशा तय करने में कुछ मदद तो ज़रूर मिलेगी।

कैसा अद्भुत है कि आधुनिक विज्ञान ने हमारे एक मशहूर मिथक को साकार कर दिखाया है .