Sunday 25 November 2007

पर्यावरण के दो नए भारतीय हीरो !

पर्यावरण के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार 2007 का शोर अभी थमा भी नहीं है कि विश्व प्रसिद्ध `टाइम´ पत्रिका के 29 अक्टूबर, 2007 विशेषांक ने अपने सालाना आकर्षण `टाइम्स हीरोज´ के रुप में जिन महान हस्तियों का नाम जगजाहिर किया वे भी पर्यावरण से ही जुड़े हैं और उनमें दो भारतीय चेहरे भी शामिल हैं। `हीरोज आफ द इनविरानमेन्ट´ शीर्षक के तहत पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करने वाले जिन विभूतियों को `टाइम´ पत्रिका ने विश्व के कोने-कोने से ढूढ़ निकाला है उनमें शामिल भारतीय चेहरे हैं- डी0पी0 डोभाल और तुलसी तान्ती। डी0पी0 डोभाल एक ग्लेशियर विद हैं, वहीं तुलसी तान्ती एक इंजीनियर-उद्योगी।
डी0पी0 डोभाल मूलत: एक वैज्ञानिक हैं- सर सी0वी0 रमन की ही परम्परा के एक प्रकृति अन्वेषी विज्ञानी जो वैज्ञानिक अनुसन्धानों के लिए यांत्रिक ताम-झाम और उपकरणों को ज्यादा तरजीह नहीं देते। उन्होंने हिमालयी ग्लेशियरों की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई स्थानीय तौर पर उपलब्ध बांस की खपिच्चयों/डंडियों के सहारे ही नाप डाली है। विगत कुछ वर्षों से ये ग्लेशियर वार्मिंग)के चलते तेजी से पिघल रहे हैं, `गरमाती धरती´ के इसी रुख पर मौसम विज्ञानियों की चौकस नजर है। उत्तरी ध्रुव, ऐल्प्स की घाटियों के पिघलते ग्लेशियर पर मौसम विज्ञानियों का विपुल अध्ययन हो चुका है, किन्तु विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला-हिमालय के ग्लेशियरों पर आश्चर्यजनक रुप से काफी कम अध्ययन हुआ है। डोभाल मूलत: भूगर्भ विज्ञानी हैं जो भारत सरकार पोषित `वाडिया इन्स्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी´ के लिए अनुसन्धान कर रहे हैं। उनका अध्ययन हिमालय के तेजी से पिघल रहे ऊ¡चाई वाले हिमनदों से मैदानी नदियों में सम्भावित जल प्लावन और दूरगामी सूखे की स्थितियों के आकलन पर केिन्द्रत है।
नदियों में हिमनद पिघलाव से प्रेरित जल प्लावन और कालान्तर के सूखे की भयावहता का मसला भारत के मैदानी इलाकों के करोड़ों लोगों की आजीविका या कहें कि जीवन मृत्यु से जुड़ा हुआ है। इस `हिमालयी हीरो´ के कारनामें को `टाइम´ के संवाददाता साइमन राबिन्सन ने `कवर´ किया है। डी0पी0 डोभाल सहसा ही भारत के पर्यावरण विज्ञानियों के बीच चर्चित हो उठे हैं।
`टाइम´ के दूसरे भारतीय पर्यावरण के हीरो हैं- तुलसी तान्ती। जिनकी पवन-चक्कियों से उत्पादित विद्युत के अजस्र स्रोत ने `टाइम´ संवाददाता आर्यन ब्रेकर का ध्यान अपनी ओर खींचा। तुलसी तान्ती पेशे से इंजीनियर रहे हैं और 1995 के दौरान वे अपनी एक टेक्सटाइल कम्पनी की स्थापना में जी जान से जुटे थे। किन्तु अनियमित विद्युत आपूर्ति और जले पर नमक की भांति प्रति माह आने वाले भारी भरकम बिजली के बिल ने उनकी सारी महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया। 49 वर्ष के इस इंजीनियर ने तब विद्युत उत्पादन के नये किफायती और टिकाऊ स्रोत के विकास का संकल्प लिया। और एक दशक से भी कम समय में उन्होंने ऊर्जा के एक वैकल्पिक किन्तु भरोसेमन्द सस्ते स्रोत को विकसित करने और उसके औद्योगिक उपयोग में सफलता हासिल कर ली।
उन्होंने कपड़ों के निर्माण-उत्पादन के अपने आरिम्भक एजेण्डे को दूसरे नम्बर पर करके पहली प्राथमिकता पवन चक्कियों के विकास को दे दी है और उनकी कम्पनी `सजलोन´ ने `विण्ड टरबाइन के उत्पादन का काम संभाला है और आज `सजलोन´ की चार महाद्वीपों में शाखायें और `विण्ड फार्म´ हैं। यह विश्व की चौथी बड़ी `विण्ड टरबाइन - निर्माता कम्पनी बन चुकी है। इसका वािर्षक लाभ 85 करोड़ डालर तक जा पहुंचा है। इसके बदौलत ही तान्ती भारत के टाप टेन के धन कुबेरों में भी अपना नाम दर्ज करा चुके हैं. मुख्य फैक्टरी पाण्डिचेरी में है जो केवल पवन ऊर्जा से संचालित है।
पर्यावरण के इन दोनो नए चेहरों को सलाम !

Saturday 17 November 2007

ईश्वर को प्रिय है ज्ञान मार्ग

क्या सचमुच मनुष्य दैवीय सृजन का प्रतिफल है ?या फिर जैवीय विकास के फलस्वरूप वह निम्न प्राणियों से ही धरती पर अवतरित हुआ है -चार्ल्स डार्विन ने इस मसले को पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर अपनी युगान्तरकारी पुस्तक 'डिसेंट ऑफ़ मैन' [1871] मे हल कर दिया था, जिसमे बहुत ही प्रभावशाली तरीके से समझाया गया था कि मनुष्य भी दीगर जीवों की तरह एक लम्बी वैकासिक प्रक्रिया का प्रतिफलन है और वह नर-वानर कुल का ही वंशज है -उसके आदि पुरखे कभी वानरों सदृश ही रहे होंगे . मतलब की आज के गोरिल्ला ,चिम्पांजी तथा मानव किसी एक वंश कड़ी की ही उपज हैं .मतलब यह कि मनुष्य किसी दैवीय उत्पाद का हकदार नही है , ईश्वर ने उसे सृजित नही किया बल्कि वह नीची विरासत का अवतरित प्राणी हैयह धर्म के नाम पर रोजी रोटी कमाने वालों के मुह पर एक करारा तमाचा था .डार्विन की बड़ी खिल्लियाँ उडाई गयी ,चर्च ने बड़ा हो हल्ला मचाया -मगर वैज्ञानिक पद्धति से निष्कर्षित तथ्यों के आगे उनकी आवाज थमती गयी .लेकिन आश्चर्य तो यह है कि अभी भी ऐसे लोग है जो बडे ही प्रायोजित तरीके से सृजनवाद के प्रचार प्रसार मे लगे हैं .आख़िर अज्ञान के प्रसार से उन्हें क्या मिलेगा ?.जबकि कई धर्मों की मान्यता यही है कि खुद भगवान को भी ज्ञान मार्ग ही सबसे प्रिय है -'प्यारे भक्तों' को वे भी दूसरे दर्जे पर रखते हैं .

Wednesday 14 November 2007

कहीं यही तो नही है सोम?


सोम के लिए नयी दावेदारी -यार -त्सा - गम्बू [yar-tsa-gambu] एक फन्फूद [कवक] और एक किस्म के मोथ [पतंगे] का मिश्रित रुप है.तिब्बती बोल चाल मे यार त्सा गम्बू का मतलब है 'जाड़े मे कीडा और गर्मी मे पौधा 'यह एक रोचक मामला है. होता यह है कि एक मोथ [पतंगा ]गर्मियों मे पहाडों पर अंडे देता है जिससे निकले भुनगे तरह तरह की वनस्पतियों की नरम जड़ों से अपना पोषण लेते हैं .इतनी ऊंचाई पर और कोई शरण होने के कारण जाड़े से बचाव के उपक्रम मे ये भूमिगत हो जाते हैं और तभी इनमे से कुछ हतभाग्य एक मशरूम प्रजाति की चपेट मे जाते है जो अब इन भुनगों से अपना पोषण लेते हैं .जाड़े भर यह परजीवी मशरूम और अब तक मृत भुनगा जमीन के भीतर पड़े रहते हैं और मई माह तक बर्फ पिघलने के साथ ही मशरूम की नयी कोपल मृत भुनगे के सिर से फूटती है -यह विचित्र जीव -वनस्पति समन्वय ही स्थानीय लोगो के लिए यार सा गम्बू है .इससे अब् व्यापारिक स्तर पर एक रसायन -कर्डीसेप्तिन का उत्पादन शुरू हो गया है जो बल-ओज ,पुरुसत्त्व और खिलाडियों की स्टेमिना बढाने मे कारगर है - इसकी कीमत प्रति किलो . लाख है .यह तिब्बत और उत्तरांचल की पहाडियों खास कर पिथौरागढ़ मे मिल रहा है और अब तो इसकी कालाबाजारी भी हो रही है .कहीं यही तो सोम नही है ?यदि सोम की प्रमाणिकता साबित हो जाती है और भारत अपनी बौद्धिक दावेदारी इस चमत्कारी
वनस्पति पर साबित कर लेता है तो बस पौ बारह समझिए .

Tuesday 6 November 2007

किसे हम सोम माने -कस्मे सोमाय हविशा विधेम !

कुछ चिट्ठाकार प्रेमियों ने वैदिक सोम वनस्पति के बारे मी जिज्ञासा दिखाई है .अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईशा के पहले ही इस बूटी /वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गयी .ऐसा भी कहाजाता है कि सोम[होम] अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों ने इसकी जानकारी आम लोगो को नही दी ,उसे अपने तक हीसीमित रखा और कालांतर मे ऐसे अनुस्ठानी ब्राह्मणों की पीढी /परम्परा के लुप्त होने के साथ ही सोम कीपह्चानभी मुश्किल हो गयी .सोम को पहचान पाने की विवशता की झलक रामायण युग मे भी है -हनुमान दो बारहिमालय जाते हैं ,एक बार राम और लक्ष्मण दोनो की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर ,मगरसोम की पहचान होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं: दोनो बार -लंका के सुषेण वैद्य ही असली सोम की पहचानकर पाते हैं यानी आम नर वानर इसकी पहचान मे असमर्थ हैं [वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड,७४ एवं १०१ वां सर्ग] सोम ही संजीवनी बूटी है यह ऋग्वेद के नवें 'सोम मंडल 'मे वर्णित सोम के गुणों से सहज ही समझा जा सकता है .
सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक ,ओज्वर्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है ,साथ हीअनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है .सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट पीस कर तथा भेंड के ऊन कीछननी से छान कर प्राप्त किये जाने वाले सोमरस के लिए इन्द्र,अग्नि ही नही और भी वैदिक देवता लालायित रहतेहैं ,तभी तो पूरे विधान से होम [सोम] अनुष्ठान मे पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे , बाद मे प्रसाद के तौर पर लेकर खुद स्वयम भी तृप्त हो जाते थे .आज के होम भी उसी परम्परा के स्मृति शेष हैं परसोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है जो सोम की प्रतीति भर है.कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों मे देवताओं को सोम अर्पित कर पाने और वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने कि ग्लानि और क्षमा याचना की सूक्तियाँ भी हैं
मगर जिज्ञासु मानव के क्या कहने जिसने मानवता को सोम कलश अर्पित करने की ठान रखी है और उसकी खोज
मधु ,ईख के रस ,भांग ,गांजा ,अफीम,जिन्सेंग जैसे पादप कंदों -बिदारी कंद सरीखे आयुर्वेदिक औषधियों से कुछ खुम्बियो [मशरूमों ] तक पहुँची है जिनके बारे मे अगले चिट्ठे मे .............
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